गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें भगवान कैसे मिलेंजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....
मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
आत्माका कल्याण चाहनेवालोंको सबसे पहले मनका सुधार करना चाहिये। यदि आपको मनके सुधारकी आवश्यकता समझमें आती हो तो इसी समयसे ही लग जाना चाहिये। एक ही बात-इस मनकी निगरानी रखो कि मन क्या करता है। हर समय चरवाहेकी तरह हाथमें लाठी लिये तैयार रहो। अच्छी नीयतवाला चरवाहा लाठी लिये गायके पीछे हर समय रहता है कि दूसरोंके खेतमें न घुस जाय, नहीं तो इसके भी लाठी पड़ेगी और अपना भी अपमान होगा। यह संसार दूसरोंका खेत है, भगवान्का स्वरूप अपना खेत है। परमात्माके स्वरूपका चिन्तन ही अपने खेतमें चरना है। इस एक ही बातमें कल्याण है, पाँच-सातकी आवश्यकता नहीं है।
मन भोले बालककी तरह है। जैसे छ: महीनेका बालक चपल और मूर्ख भी है, ऐसे बालककी माता निगरानी रखती है, माता गृहकार्य करती रहती है, परन्तु ध्यान बालकपर है। बालक बिच्छू पकड़नेके लिये दौड़ता है, परन्तु माँ ध्यान रखती है, रोटी बनाते-बनाते दौड़कर आती है। बालक अँगीठीकी ओर जाता है उसे उठाकर लाती है। फिर भी जाता है तो आग बुझाकर अँगीठीको ऊँचा उठाकर रख देती है। बालक फिर भी उधर ही जाता है, कोयला खाने लगता है, फिर क्रोध आता है, दो-चार थप्पड़ लगाती है। इसी प्रकार इस मनकी सँभाल रखनेकी आवश्यकता है।
प्रश्न-मनको थप्पड़ कैसे मारें? बुद्धि मनका ही ध्यान करती रहे या परमात्माका?
उत्तर—यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्।।
(गीता ६।२६)
मन जहाँ-जहाँ जाय वहाँ-वहाँसे लाकर परमात्मामें ही बारम्बार लगावे। नियत स्थान परमात्माका स्वरूप है। बालक मन है, माँ आत्मा है। बुद्धिद्वारा मनको माँरूपी आत्मामें लाकर परमात्माके स्थानमें लगावे।
संसारके विषय-भोग आग हैं। बालक इसी ओर जाता है। माँ पुकारती है-मत जाओ। वह नहीं मानता। आगको ऊँची रखना विषयोंको नियममें बाँध देना है। मन फिर उधर जाता है, नियम तोड़ना चाहता है।
आग बुझा देना विषय-भोगोंको एकदम त्याग देना है। जैसे कोई गृहस्थ संन्यासाश्रममें चला गया, स्वरूपसे त्याग कर दिया। फिर मन कोयलेकी ओर जाता है। स्वरूपसे उपभोग नहीं करता, परन्तु मनसे चिन्तन करता रहता है।
अन्नसे ही मन बनता है, अन्न न देना, उपवास करना ही मनको थप्पड़ मारना है। जब दूसरी स्त्रीकी ओर मन जाय तो नित्य उपवास करो। नित्य थप्पड़ पड़ते-पड़ते उसको विचार होगा कि तुम्हारी माँ क्यों मार रही है। फिर रुक जाता है। झूठ बोलना, क्रोध करना सबके लिये उपवास करना ही संयम है। साधनकी वृद्धि होना ही बालकका बड़ा होना है। उसको फिर समझाना चाहिये।
माताकी मुख्य वृत्ति बालकमें है, गौणीवृत्तिसे रसोई बना रही है। रोज थप्पड़ नहीं मारना, नहीं तो आदत हो जाती है। समझानेकी चेष्टा रखे। रस्सीपर नाचनेवाले बाजीगरका उदाहरण देखना चाहिये। मनके संयमका काम मुख्य वृत्तिसे करना चाहिये। गौणीवृत्तिसे संसारका काम करना चाहिये। बाँसपर चढ़ते समय गलेमें ढोलकी, सिरपर घड़ा, हाथोंमें ढोलक बजानेका डंडा तथा पैर रस्सीपर हैं।
मन रेशमके लच्छेकी तरह है। इसमें उलझन बहुत पड़ गयी है, हलके हाथसे धीरे-धीरे सुलझाता रहे। जबतक न सुलझे तबतक छोड़े नहीं। जल्दबाजी न करे, परन्तु छोड़े नहीं।
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